गुरु पूर्णिमा का ज्योतिष महत्‍व भी समझें, संवर जाएगा जीवन

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णमासी तिथि गुरु पूर्णिमा अथवा व्यास पूर्णिमा के नाम से जानी जाती है। गुरु के प्रति पूर्ण सम्मान, श्रद्धा भक्ति और अटूट विश्वास रखने से जुड़ा यह पर्व ज्ञान अर्जन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। मान्यता है कि गुरु अपने शिष्यों के आचार-विचारों को निर्मल बनाकर उनका उचित मार्गदर्शन करता है तथा इस नश्वर संसार के मायाजाल, अहंकार, भ्रांति, अज्ञानता, दंभ, भय आदि दुर्गुणों से शिष्य को बचाने का प्रयास करता है।

गुरु पूर्णिमा की ज्योतिष मान्यता
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस तिथि को चंद्र ग्रह देवताओं के गुरु बृहस्पति की धनु राशि शुक्राचार्य के नक्षत्र पूर्वाषाढ़ में होते हैं। चूंकि चंद्रमा मन का कारक है, इसलिए मनुष्य का संबंध दोनों गुरुजनों से स्थापित होने से वह ज्ञान की ओर अभिलक्षित होता है। वहीं दूसरी ओर आषाढ़ मास में आकाश घने बादलों से आच्छादित रहता है। अज्ञानता के प्रतीक इन बादलों के बीच से जब पूर्णिमा का चंद्रमा प्रकट होता है तो माना जाता है कि अज्ञानता रुपी अंधकार दूर होने लगता है। इसलिए इस दिन पुराणों के रचियता वेदव्यास और वेदों के व्याख्याता शुकदेव के पूजन की परंपरा है। अतः पूर्णिमा गुरु है जबकि आषाढ़ मास शिष्य है।
पूजनीय हैं गुरु पूर्णिमा
उपनिषद, पुराण, शिव सूत्र, आर्ष ग्रंथ, गोरखवाणी, अष्टावक्र, गीता, भजगोविंद, तंत्रराज, बाइबिल, गुरुग्रंथ साहब, राधस्वामी मत दर्शन आदि में गुरु को परम पूजनीय मानते हुए कहा गया है कि गुरु अपनी वाणी तथा सदाचरण से शिष्यों के इहलोक एवं परलोक को सुधारकर सुखी और आनंदमय जीवन जीने की सर्वोत्तम कला सिखाते हैं। यद्यपि गुरु पूर्णिमा का संबंध किसी गुरु विशेष से नहीं है फिर भी यह पर्व एक आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में गुरु के प्रति निष्ठाभाव को व्यक्त करने के लिए मनाया जाता है। गुरु के प्रति अपमान, अनादर, अभद्रता, मिथ्या भाषण, छल, कपट जैसा आचरण करना गोवध तथा ब्रह्महत्या के समान पाप माना गया है।
गुरु के प्रकार
गुरु दो प्रकार के हैं। एक शिक्षा गुरु जो शिष्यों को पूर्ण शिक्षित बनाते हैं और दूसरे दीक्षा गुरु कहे गए हैं जो अपने भक्तों एवं अनुयाइयों के दिल से अज्ञानता के अंधकार को दूर करके उनके मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं। गुरु के यह दोनों स्वरुप श्रद्धा और विश्वास के योग्य हैं। वर्तमान समय में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव और स्वार्थपरक नीति के कारण गुरु के प्रति सम्मान एवं निष्ठा में कमी आई है लेकिन फिर भी गुरु को ज्ञान प्राप्ति का माध्यम मानते हुए उनसे शिक्षा ग्रहण की जाती है। कुटिल, कामुक, लोकनिंदित, भक्तिहीन, दुश्चरित्र और अपवित्र आचरण वाले गुरु सर्वथा त्याज्य योग्य हैं। गुरु पूर्णिमा पर्व की सार्थकता तभी है जबकि गुरु और शिष्य एक दूसरे के प्रति सच्चा सम्मान एवं समर्पित भाव रखते हुए अपने भीतर आदर्श गुणों को आत्मसात करें और समाज एवं देश को अज्ञान रुपी अंधकार को दूर भगाने में सहयोगी बनें।
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