पुराणों के अनुसार इन तीन ऋणों से मुक्ति से आएगी जीवन में खुशहाली और सम्पन्नता

पुराणों के अनुसार ऋण दो प्रकार के है, एक आध्यात्मिक व दूसरे आर्थिक, आर्थिक। ऋण का संबंध तो हमारे इसी जन्म से है परंतु आध्यात्मिक ऋणों का संबंध हमारे जन्म जन्मांतरों से है। हमारा यह जीवन पूर्व के कई जन्मों से जुड़ा हुआ है और शृंखलाबद्ध तरीके से हम हमारे इस जीवन व पूर्व जन्मों के कर्म व पुराने ऋणानुबंधनों का परिमार्जन कर रहे है।

उपनिषदों
मे लिखा है की हम हमारे हृदयस्थल मे स्थित ब्रह्म का निरंतर ध्यान करे और अपने पूर्व कर्मो को चुका इस जीवन को अनंत ऊंचाइयों पर ले कर जाए। इस धरा पर हमारे जन्म के साथ ही तीन ऋणों का भार तो स्वत: ही हमारे जीवन पर हो जाते है। ये है मातृ ऋण, पित्र-ऋण व देव ऋण इसीलिए कहा गया है की मातृ देवो भव, पितृ देवो भव तथा आचार्य देवो भव। ऋणों के बारे मे एक और महत्वपूर्ण बात ये है कि हमारे स्वयं के अलावा पूर्वजो के ऋणों के भार भी पीढ़ी दर पीढ़ी आगे चलता रहता है जब तक कि उनका मार्जन ना हो जाए।
आप पर तीन मूल ऋणों के अलावा और अन्य कोई ऋण भार है या नही इसका पता कुंडली से आसानी से लगाया जा सकता है और हमे उनके मार्जन का भरपूर प्रयास करना चाहिए ताकि मोक्ष मार्ग की ओर कदम बढ़ाया जा सके।
1. पितृ ऋण: इस जन्म के अलावा यदि पूर्व जन्मो के पितृ ऋण भी आप पर लंबित है तो इसकी पहचान यह है कि यदि कुंडली के 2, 5, 9 व 12वें भाव मे कोई भी गृह हो तो यह पितृ ऋण का द्योतक है यदि ये पाप गृह हो तो इसमे पुराने ऋण भी शामिल है। इस ऋण के कुछ प्रमुख स्थितियां है, यदि नवम भाव में गुरु शुक्र की युति हो या चतुर्थ स्थान मे शनि व केतू की युति हो, अष्टम भाव मे बुध व नवम भाव में गुरु हो या तीसरे भाव मे बुध व नवम मे राहू हो, छठे भाव में बुध हो व नवम भाव में केतू हो तो ये पितृ ऋण की ओर इशारा कर रहे है। इस ऋण के कारण सभी कार्यो मे विफलता व देरी से परिणाम मिलते है, इसके अलावा जातक के बाल असमय सफेद हो जाते हैं, घर में बरकत नहीं होती, हर कार्य मे निराशा हाथ लगती है, सम्मान में कमी होती है व बनते काम अटक जाते हैं।
2. मातृ ऋण: कुंडली में माता का स्थान चतुर्थ भाव से जाना जाता है, इस स्थान मे यदि केतू व चंद्रमा की युति हो, राहू व शनि हो तो यह मातृ ऋण की ओर इशारा है, उक्त दोष प्रमुखतया जातक द्वारा माता को तकलीफ पहुचाने के कारण होता है। कुंडली मे उक्त दोष होने पर जातक की स्थाई संपदा अचानक नष्ट होने लग जाती है, घर में पशुओं को नुकसान होता है, किसी जातक की असमय मृत्यु व विषाद के क्षणों में जातक के मन में आत्महत्या जैसे विचार आने लगते हैं।
3. देव ऋण: देव ऋण को स्व ऋण भी कहा जाता है, इसकी पहचान पंचम भाव से की जाती है यदि पंचम भाव मे सूर्य केतू हो या शनि राहू होए द्वादश भाव मे चंद्रमा, शनि, मंगल या राहू अथवा केतू हो तो स्वयं या देव ऋण से जातक पीडि़त होता है। इस दोष से पीडि़त होने पर जातक अपने जीवन काल मे स्वयम अतुल धन संपदा अर्जित करता है, नाम दाम कमाता है, प्रकृति से नास्तिक होता है लेकिन अकस्मात ही आपतियों का पहाड़ सा जातक पर आता है व सब कुछ समाप्त हो जाता है, जातक शारीरीक व्याधियों का शिकार हो जाता है। इन ऋणों के अलावा अन्य ऋण जैसे अजन्मा ऋण, बहिन का ऋण, प्राकृतिक ऋण आदि भी होते जिनकी पहचान भी कुंडली से हो जाती है, यदि पूर्व जन्म में मित्रों के साथ धोखा किया हो या ऐसा कोई कार्य किया हो जिससे उनके वंश पर विपरीत प्रभाव पड़ा हो तो यह अजन्मा ऋण कहलाता है, इस ऋण के परिणाम स्वरूप जातक पर चोरी, डकैती व बलात्कार आदि संगीन आरोप लगते है। निर्दोष होने के बावजूद अपनी बेगुनाही साबित नही कर पाते हैं, दुर्भाग्य पीछा नही छोड़ता है। ऐसे जातक की कुंडली के बारहवे भाव मे सूर्य चंद्र या मंगल के साथ राहू या केतू की युति होती है।
ऋण मुक्ति के उपाय
1. पूर्व जन्म के कारण उत्पन्न होने वाले ऋणों का मार्जन करने के लिए जातक को भगवान विष्णु की आराधना निरंतर करनी चाहिए।
2. अपने आवास पर श्रीमद भागवत पुराण का स्कूटुंब श्रवण करना चाहिए।
3. पितृ ऋण के शमनार्थ परिवार के सभी व्यक्तियों से राशि एकत्रित कर तीर्थ स्थल पर जन सुविधा के लिए निर्माण में योगदान करे या स्वयं कराए।
4. मातृ ऋण के शमनार्थ मां की सेवा करेएगाय का दान करे।
5. गरीब व्यक्तियों को भोजन कराए व नारियल बहते जल मे प्रवाहित करें।
पं नन्द किशोर शर्मा
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