Vastu Articles I Posted on 04-10-2025 ,06:10:47 I by:
हिंदू संस्कृति और सनातन परंपरा में गाय को केवल एक पशु नहीं, बल्कि माता के रूप में सम्मानित किया गया है। कहा जाता है कि गाय में 33 कोटि देवी-देवताओं का वास होता है। यही कारण है कि हिंदू घरों में रोटी बनाते समय पहली रोटी विशेष रूप से गाय के लिए निकाली जाती है। यह परंपरा मात्र धार्मिक मान्यता नहीं, बल्कि जीवन दर्शन और प्रकृति से जुड़ी आस्था का गहरा प्रतीक है। लेकिन आखिर इसके पीछे की वास्तविक मान्यता क्या है? और भूत यज्ञ से इसका क्या संबंध है? आइए विस्तार से समझते हैं।
सनातन धर्म में जीवन को चार पुरुषार्थों�धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष�के मार्ग पर ले जाने के लिए पांच प्रकार के यज्ञों का उल्लेख किया गया है। ये यज्ञ हैं: देव यज्ञ, ऋषि यज्ञ, पितृ यज्ञ, भूत यज्ञ और अतिथि यज्ञ। इनमें से भूत यज्ञ वह कर्तव्य है जिसमें समस्त जीव-जंतुओं, कीट-पतंगों, पक्षियों, पशुओं और पर्यावरण तक का ध्यान रखा जाता है। यह यज्ञ जीवों के प्रति करुणा और प्रकृति के प्रति सम्मान की भावना को उजागर करता है।
भूत यज्ञ के अंतर्गत ही गाय को पहली रोटी देने की परंपरा जुड़ी हुई है। यह परंपरा न सिर्फ एक धार्मिक अभ्यास है, बल्कि यह इस बात का प्रतीक है कि मानव अपने जीवन के एक हिस्से को उन जीवों के लिए समर्पित करता है, जो बिना कुछ कहे हमारी पृथ्वी और जीवन को संतुलन में रखते हैं। गाय को माता कहे जाने के पीछे केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि गहन सांस्कृतिक और आध्यात्मिक तर्क भी हैं। माना जाता है कि गाय को भोजन कराने से न केवल पापों का क्षय होता है, बल्कि समस्त कष्टों का निवारण भी होता है।
शास्त्रों में उल्लेख है कि गाय को अन्न का अर्पण करने से पितरों की आत्मा को भी तृप्ति मिलती है। यही कारण है कि श्राद्ध और तर्पण जैसे कर्मों में गाय का विशेष स्थान होता है। एक और रोचक पक्ष यह है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी गाय के पास बैठना या उसे स्नेहपूर्वक देखना सकारात्मक ऊर्जा के संचार में सहायक होता है। गाय की उपस्थिति वातावरण में शांति और मानसिक स्थिरता का भाव उत्पन्न करती है।
इस प्रकार जब कोई गृहस्थ महिला रसोई में पहली रोटी बनाकर गाय को अर्पित करती है, तो वह न केवल एक धार्मिक परंपरा का पालन करती है, बल्कि संपूर्ण सृष्टि के प्रति अपनी जिम्मेदारी, करुणा और विनम्रता का परिचय भी देती है। यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है और आने वाली पीढ़ियों तक इसे जीवित रखना, सनातन संस्कृति की आत्मा को सहेजने के समान है।