इस मंदिर में मां बगलामुखी के अनुष्ठान करने से होंगी मन की सभी मुरादें पूरी

आज ही वह शुभ घडी आई है जब नवरात्र शुरू हुए हैं। यह वही समय है जो सभी साधको के लिए बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इस काल में की गई उपासना का विशेष फल प्राप्त होता है। जो लोग अभी तक किसी कारण से कोई अनुष्ठान अथवा पुरश्चरण नहीं कर सके हैं उन्हें कल से वह अवश्य शुरू कर देना चाहिए। यह जरुरी नहीं है कि नवरात्र में केवल माँ दुर्गा की ही उपासना की जाती है बल्कि इस समय आप किसी भी इष्ट देवता के मंत्रों का अनुष्ठान कर सकते हैं। कहते हैं इन दिनों में यदि मां बगलामुखी के जाप किए जाएं तो मन की सभी मुरादें पूरी होती हैं और व्यक्ति सभी सुखों को भोगने लगता है।

कहते हैं कि नलखेड़ा (मध्यप्रदेश) स्थित प्राचीन मां बगलामुखी सिद्धपीठ पर यह अनुष्ठान संपन्न होते हैं। इस सिद्ध पीठ की स्थापना महाभारत युद्ध के समय भगवान श्री कृष्ण के सुझाव पर पांडव वंश के युवराज युधिष्ठिर द्वारा की गयी थी। यह शमशान क्षेत्र में स्थित स्वयंभू प्रतिमा बहुत चमत्कारी हैं।
जिला आगर (म.प्र.) स्थित नलखेड़ा नगर का धार्मिक एवं तांत्रिक द्रिष्टि से महत्त्व है। तांत्रिक साधना के लिए उज्जैन के बाद नलखेड़ा का नाम आता है . कहा जाता है की जिस नगर में माँ बगलामुखी विराजित हो, उस नगर, को संकट देख भी नहीं पाता। बताते हैं की यहाँ स्वम्भू माँ बगलामुखी की मूर्ति महाभारत काल की है। पुजारी के दादा परदादा ही पूजन करते चले आ रहे हैं। यहां श्री पांडव युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण के निर्देशन पर साधना कर कौरवों पर विजय प्राप्त की थी |
यह स्थान आज भी चमत्कारों में अपना स्थान बनाये हुए है। देश विदेश से कई साधू- संत आदि आकर यहाँ तंत्र –मन्त्र साधना करते हैं, माँ बगलामुखी की साधना करते हैं | माँ बगलामुखी की साधना जितनी सरल है तो उतनी जटिल भी है।
मां बगलामुखी वह शक्ति है, जो रोग शत्रुकृत अभिचार तथा समस्त दुखो एवं पापो का नाश करती है। इस मंदिर में त्रिशक्ति माँ विराजमान है, ऐसी मान्यता है की मध्य में माँ बगलामुखी दायें माँ लक्ष्मी तथा बायें माँ सरस्वती हैं। त्रिशक्ति माँ का मंदिर भारत वर्ष में कहीं नहीं है।
मंदिर में बेलपत्र , चंपा , सफ़ेद आकड़े, आंवले तथा नीम एवं पीपल ( एक साथ ) पेड़ स्थित है जो माँ बगलामुखी के साक्षात् होने का प्रमाण है। मंदिर के पीछे नदी ( लखुन्दर पुरातन नाम लक्ष्मणा) के किनारे कई समाधियाँ ( संत मुनिओं की ) जीर्ण अवस्था में स्थित है , जो इस मंदिर में संत मुनिओं का रहने का प्रमाण है।
मंदिर के बाहर सोलह खम्भों वाला एक सभामंडप भी है जो आज से 252 वर्षों से पूर्व संवत 1816 में पंडित ईबुजी दक्षिणी कारीगर श्रीतुलाराम ने बनवाया था | इसी सभामंड़प में मां की ओर मुख करता हुआ कछुआ बना हुआ है, जो यह सिद्ध करता है की पुराने समय में माँ को बलि चढ़ाई जाती थी।
मंदिर के ठीक सम्मुख लगभग 80 फीट ऊँची एक दीप मालिका बनी हुई है | यह कहा जाता है की मंदिरों में दीप मालिकाओं का निर्माण राजा विक्रमादित्य द्वारा ही किया गया था | मंदिर के प्रांगन में ही एक दक्षिणमुखी हनुमान का मंदिर एक उत्तरमुखी गोपाल मंदिर तथा पूर्वर्मुखी भैरवजी का मंदिर भी स्थित है , मंदिर का मुख्या द्वार सिंह्मुखी है , जिसका निर्माण 18 वर्ष पूर्व कराया गया था।
माँ की कृपा से सिंहद्वार भी अपने आप में अद्वितिए बना है , श्रद्धालु यहाँ तक कहते हैं की माँ के प्रतिमा के समक्ष खड़े होकर जो माँगा है, वह हमें मिला है हम माँ के द्वार से कभी खाली हाथ नहीं लौटे हैं |

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