आज है पहला श्राद्ध, पितरों को इस तरह मनाएंगे तो आएगी सुख-समृद्धि और खुशहाली

पितृपक्ष या महालय में दिवंगत पूर्वजों की मृत्यु तिथि पर पितरों के लिए श्राद्ध एवं तर्पण करने से, पितर तृप्त होकर वंश वृद्धि और सुख शांति का आशीर्वाद प्रदान करते हैं। पितृपक्ष में सूर्य कन्या राषि के दसवें अंश पर आता है और वहॉं से तुला राशि की ओर बढ़ता है। इसे कन्यागत सूर्य कहते हैं। जब सूर्य कन्यागत हो तो उस समय पितरों का श्राद्ध करना अति महत्वपूर्ण कहा गया है। प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आष्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष मान्य रहता है। शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध पक्ष में दिवंगत पूर्वजों के निमित्त श्राद्ध, तर्पण, पिंड़दान यज्ञ तथा भोजन का बिशेष प्रावधान किया गया है। वर्ष में जिस भी तिथि को वे दिवंगत होते हैं, पितृपक्ष की उसी तिथि को उनके निमित्त विधि-विधान पूर्वक श्राद्ध कार्य सम्पन्न किया जाता है। दिवंगत पूर्वजों के निमित्त श्रद्धा पूर्वक किए दान को ही श्राद्ध कहा जाता है।

ब्रह्मपुराण में कहा गया है आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च। प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितरः श्राद्ध तर्पिता।। अर्थात श्राद्ध के द्वारा प्रसन्न हुए पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष तथा स्वर्ग आदि प्रदान करते हैं। पितृष्वरों के आर्षीवाद से ही जन्म कुंडली में निर्मित पितृदोष के दुष्परिणामों से बचा जा सकता है। आष्विन कृष्ण पक्ष में किए जाने वाले श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाते हैं जबकि बार्षिक श्राद्ध एकोदिष्ट होते हैं। वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता हैं। यह तीनों हमारे द्वारा किये गए श्राद्ध कर्म से तृप्त होकर मनुष्यों के पितरों को भी तृप्त करते हैं।
याज्ञवल्क्य का कथन है कि श्राद्ध देवता श्राद्ध कर्त्ता को दीर्घ जीवन, आज्ञाकारी संतान, धन विद्या, संसार के सुख भोग, स्वर्ग तथा दुर्लभ मोक्ष भी प्रदान करते हैं। पितरों की मनुहार विष्णु पुराण में कहा गया है कि श्राद्ध तथा तर्पण से तृप्त होकर पितृगण समस्त कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं। श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों के द्वारा ही होती है अतः श्राद्ध के अवसर पर दिवंगत पूर्वजों की मृत्यु तिथि को निमंत्रण देकर ब्राह्मण को भोजन, वस्त्र एवं दक्षिणा सहित दान देकर श्राद्ध कर्म करना चाहिए।
इस दिन पांच पत्तों पर अलग-अलग भोजन सामग्री रखकर पंचबलि करें ये हैं- गौ बलि, ष्वान बलि, काक बलि, देवादि बलि तथा पिपिलिकादि बलि (चींटियों के लिए)। इसके बाद अग्नि में भोजन सामग्री, सूखे आंवले तथा मुनक्का का भोग लगाएं। श्राद्ध में एक हाथ से पिंड़ तथा आहूति दें परन्तु तर्पण में दोनों हाथों से जल देना चाहिए।

तर्पण (तिलांजलि)

श्राद्ध तिथि को स्नान करके पितरों के लिए दिया हुआ तिल मिश्रित जल भी उनके लिए अक्षय तृप्ति का साधक होता है। पितरों का तर्पण करने के पूर्व ’ऊॅं आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्नन्तु जलान्जलिम।।’ मंत्र से उनका आवाहन करें। अब तिल के साथ पिता, पितामह, प्रपितामह तथा माता, मातामह, प्रमातामह के निमित्त तीन-तीन तिलांजलियां दें। तर्पण में दक्षिण की ओर मुख करके अंजली में कुष के साथ तिल मिश्रित जल लेकर पितृ तीर्थ मुद्रा (दाहिने अंगूठे के सहारे) से उसे जल में डाल दें तथा पुनः आकाष की तरफ गिराएं। पितरों का निवास आकाश तथा दिशा दक्षिण है।
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