जैन धर्म में क्‍यों कहा जाता है चातुर्मास को महापर्व?

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव यानि आदिनाथ भगवान से लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी तक और उनके बाद आज तक वर्षायोग की परंपरा दिगंबर और श्वेतांबर जैन मान्यातों में प्रमुखता से मानी जाती है। यह आध्यात्मिक साधना का अद्भुत पर्व है जो आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी या आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) के मंगलकारी दिन से प्रारंभ होता है।

चातुर्मास यानि जीवन परिवर्तन की साधना के प्रवेश द्वार का दिवस। यह आत्मसाधक मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविका का प्रत्येक दृष्टि से तप-त्याग-संयम-समता-समाधि के आनंद-उत्साह, अहिंसा व मधुरता का आस्वादन कराने वाली धन्य घड़ियाँ हैं।

जैन मुनि वर्षायोग क्यों करते हैं?
अाषाढ़, सावन, भादो, क्वार इन मासों में वर्षा अत्यधिक होती है। जीव हिंसा से बचने के लिए जीव रक्षा के लिए, अहिंसा का पालन करने के लिए और आत्म साधना के लिए ये माह सबसे ज्यादा अच्छे हैं। वर्षा योग का संबंध केवल वर्षा से नहीं है, एक वर्ष में बारह माह होते हैं इनमें तीन ऋतु शीत, गर्मी, और वर्षा ऋतु आती है। गर्मी में दो माह का आतापन योग, ठंड में शीतयोग दो माह का और वर्षा ऋतु में चार माह का वर्षा योग होता है, इन मासों को अत्यधिक महत्व होता है इसलिए इनमें विधिवत वर्षायोग होता है। जिन प्रांतों में हमेशा वर्षा होती है वहाँ मुनियों का विचरण नहीं के बराबर होता है यदि इन्हीं मासों में मुनि वहाँ होंगे तो निश्चित ही वर्षायोग करेंगे। आषाढ़, सावन, भादो, क्‍वार आत्मसाधकों संस्कारी, आत्मा को शुद्ध करने अनुकूलताएँ अत्यधिक देते हैं। इन मासों में व्यापार मंद होता है। व्यापारी स्वतंत्र होता है। बच्चों की छुट्टीयां ज्यादा होती है, अत्यधिक वर्षा के कारण नदी नालों में बाढ़ आती है, आवागमन अवरूद्ध रहता है। धर्म साधना प्रभावना संस्कार आरोपण अच्छा होता है। सबको सत्संग का अवसर मिलता है। इन चार महीनों में प्रकृति शीतल और शांत होती है, वातावरण खुशनुमा मनभावन होता है। साधक के तन मन आत्मा पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

चातुर्मास के लिए ये ही माह क्यों उपयुक्त हैं क्या इनमें कोई विशेषता है?
चार माह का चातुर्मास... प्रथम आषाढ़ - यह माह कहता है आलस्य-प्रमाद छोड़ो वरना आलस्य तुम्हारी साधना को समाप्त कर देगा। सावन मास कहता है संतों को श्रवण करो, श्रम करो श्रावक बनो। भाद्रमास - भद्र और सरल बनो, परिणामों को निर्मल रखो अन्यथा वुंâवार मास कहता है यदि आलस्य नहीं छोड़ा, संतो को सुनकर श्रावक न बने, भद्र परिणामी नहीं बने तो सुख-पुण्य इन सबसे तुम वंचित रह जाओगे, वुंâवारे रह जाओगे। जीवन व्यर्थ चला जाएगा। स्वर्ण अवसर तुम्हारे हाथ में है उसका सदुपयोग करो। किसान यदि आषाढ़ में बीज बोने में चूक जाए तो तीन वर्ष तक परेशान होता है और पछताता है। चार पुरुषार्थ होते हैं धर्म अर्थ काम और मोक्ष और ऋतुएँ तीन गर्मी, वर्षा और ठंड़। वर्षा के बीज बोते हैं, सर्दी में फसल काटते हो और ठंड़ी में खाते हो। यदि आठ माह कुशल रूप से गुजारना है तो पुरुषार्थ करो।
इन्हीं मासों में गुरुपूर्णिमा, रक्षा-बंधन, पर्युषण पर्व, नवरात्रि, दशहरा, दीपावली आदि पर्व आते हैं। दीपावली अच्छी मनाना है तो सुनो समझो धर्म से भाग्य बनेगा, भाग्य से अर्थ मिलेगा, अर्थ काम जगेगा। तीनों तृप्त हो मुनि बन साधना करोगे मोक्ष मिलेगा। तृप्ती से अर्थ है संसार शरीर भोग से उदास हो जाओगे तो मोक्ष का मार्ग खुल जाएगा। मनुष्य को तीन प्रकार के रोग लगे हैं- जन्म, जरा, मृत्यु। भौतिक विज्ञान भी उपचार तीन प्रकार से करता है एलोपैथिक, एक रोग को दबाती है नया रोग पैदा करती है। होम्योपैथिक- रोग से लड़ने का साहस देती है।
आयुर्वेदिक के अनुसार चातुर्मास रोग को जड़ से समाप्त करती है
जन्म मरण से मुक्ति का उपचार धर्म योग ध्यान से होता है। इन सबकी ध्यान साधना के लिए चातुर्मास की स्थापना की जाती है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव जिन्हें मुस्लिम सम्प्रदाय आदम बाबा कहता है, हिंदु दत्तात्रय और वेद मनु कहता है। वर्षायोग कोई नई परंपरा नहीं है अनादिकालीन, अहिंसात्मक साधना का योग है।
आचार्य पुष्पदंत सागर
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