शास्त्रों में सगोत्र विवाह करना वर्जित क्यों!

हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार विवाह अपने कुल में नहीं, बल्कि कुल के बाहर होना चाहिए। एक गोत्र में (सगोत्री) विवाह न हो सके, इसीलिए विवाह से पहले गोत्र पूछने की प्रथा आज भी प्रचलित है। शास्त्रों में अपने कुल में विवाह करना अधर्म, निंदित और महापाप बताया गया है। इसलिए माता की 5 और पिता की 7 पीढियों को छोडकर अपनी ही जाति की दूसरे गोत्र की कन्या के साथ विवाह करके शास्त्र मर्यादानुसार संतान पैदा करनी चाहिए। क्योंकि सगोत्र में विवाह करने पर पति-पत्नि में रक्त की अति समान जातीयता होने से संतान का उचित विकास नहीं होता। सगोत्र विवाह का निषेध मनु महाराज ने भी किया है-
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितु:।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दाकर्मणि मैथुने।।
अर्थात् जो माता की छह पीढ़ी में न हो तथा पिता के गोत्र में न हो ऎसी कन्या द्विजातियों में विवाह के लिए प्रशस्त है। चिकित्सा-शाçस्त्रयों द्वारा किए गए अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआहै कि सगोत्री यानी निकट संबंधियों के बची विवाह करने से उत्पन्न संतानों में आनुवंशिक दोष अधिक होते हैं। ऎसे दंपतियों में प्राथमिक बंध्यता, संतानों में जन्मजात विकलांगता और मानसिक जडता जैसे दोषों की दर बहुत अधिक है। साथ ही मृत शिशुओं का जन्म, गर्भपात एवं गर्भकाल में या जन्म के बाद शिशुओं की मृत्यु जैसे मामले भी अधिक देखने में आए हैं। इसके अलावा रक्त-संबंधियों में विवाह पर रोक लगाकर जन्मजात ह्वदयविकारों और जुडवां बच्चाों के जन्म में कमी लाई जा सकती है।
हाल ही में हैदराबाद में हुए एक नए अध्ययन से पता चला है कि खून के रिश्ते वाले लोगों की आपस में शादी हो जाने पर उनका होने वाला बच्चा आंखों से संबंधित बीमारियों का शिकार हो सकता है। वह न केवल कमजोर दृष्टि बल्कि अंधेपन का भी शिकार हो सकता है। सरोजनी देवी आई हॉस्पिटल में किए गए अध्ययन से यह तथय भी प्रकाश में आया है कि आपसी रिश्तेदारी में शादी करने वाले जोडौं से जन्म लगभग 200 बच्चाों में से एक दृष्टि की कमजोरी का शिकार होता है। उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में नजदीकी रिश्तेदारों में शादी हो जाना एक आम बात है।

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