क्यों जरूरी है उपयुक्त आसन ...
Others I Posted on 11-07-2013 ,00:00:00 I by:

आसन का अर्थ उस स्थिति से है जिसमें आप बैठे हैं अर्थात सिद्धासन, पkासन या सुखासन। इसके अलावा जिस पर आप बैठते हैं, उसे भी आसन कहा जाता है। जिस आसन में बैठकर आप आसन करते हैं उसमें आपकी मानसिकता एवं शारीरिक ऊर्जा तरंगों की विशेष गति तथा विशेष दिशा और निर्दिष्ट होती है जबकि जिस पर आप बैठे हैं वह उन ऊर्जा तरंगों को अपने लक्ष्य की प्राçप्त का एक ठोस आधार देता है। वह ऊर्जा के क्रिया-प्रतिक्रिया की संभावित क्षति के प्रतिशत में कमी लाता है और उसे पूरी तरह से रोकता है। ब्राहाण्ड पुराण के तंत्र सार में विविध आसनों की फलश्रुति बताई गई है। खुली जमीन पर कष्ट एवं अडचने, लकडी का आसन दुर्भाग्यपूर्ण, बांस की चटाई का आसन दरिद्रतापूर्ण, पत्थर का आसन व्याधियुक्त, घास-फूस के आसन से यश-हानि, पल्लव (पत्तों) का आसन बुद्धिभंरश करने वाला तथा एकहरे झिलमिल वस्त्र का आसन जप-तप-ध्यान की हानि करने वाला तथा एकहरे माध्यम से विद्युत्संक्रमण शीघ्र होता है लेकिन लकडी, चीनी मिट्टी या कुश आदि वस्तुओं में विद्युत्संक्रमण नहीं होता। पहले प्रकार के पदार्थ संक्रामक तथा दूसरे प्रकार के पदार्थ असंक्रामक होते हैं। विद्युत प्रवाह के संक्रामक और असंक्रामक तत्वों के आधार पर प्राचीन ऋषि-मुनियों ने आसन के लिए विविध वस्तुओं की योजना बनाई है।
गाय के गोबर से लिपी-पुती जमीन, कुशासन, मृगाजिन, व्याघ्राजिन एवं ऊनी कपडा आदि वस्तुएं असंक्रामक होती है। यदि ऎसे आसन पर बैठकर नित्य कर्म, संध्या या साधना की जाए तो पृथ्वी के अंतर्गत विद्युत प्रवाह शरीर पर कोई अनिष्ट प्रभाव नहीं डालता। इसमें मृगाजिन,व्याघ्राजिन एवं सिंहाजिन उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने जाते हैं। इस विषय में यजुर्वेद कहता है- कृष्णाजिनं वै सुकृतस्य योनि:। अर्थात काले मृग का चर्म सभी पुण्यों का जनक है। मृग चर्म का एक चमत्कारी गुण यह भी है कि यह पार्थिव विद्युत प्रवाह से हमारी रक्षा करता है। साथ ही उसके अंगीकृत विशिष्ट ऊर्जा प्रवाह के कारण सत्व गुणों का विकास होता है। शरीर में स्थित तमोगुणी वृत्ति का अपने आप नाश हो जाता है। आयुर्वेद कहता है-मृगाजिन पर बैठने वाले मनुष्य को बवासीर तथा भगंदर आदि रोगों का कष्ट नहीं होता। जिस तरह मृगाजिन से सात्विक ऊर्जा की प्राçप्त होती है, उसी तरह व्याघ्राजिन एवं सिंहाजिन से राजस ऊर्जा प्राप्त होती है। इसके अलावा बाघ और शेर के चर्म के आस-पास मच्छर, बिच्छू तथा सर्प आदि जहरीले प्राणी नहीं फटकते। परंतु ये आसन शरीर में अतिरिक्त उष्णता उत्पन्न करते हैं। इन सभी बातों का विचार करने के बाद ही अपने लिए आसन का चुनाव करें। यदि दीर्घ काल तक साधना करनी हो तो उपर्युक्त में से कोई आसन लेना जरूरी है। उसके दोष निवारण के लिए ऊनी वस्त्र डाल लें। यहां यह जान लेना भी आवश्यक है कि चर्मासन प्राçप्त के लिए हरिण आदि का शिकार न करे। सहज मृत्यु के बाद प्राप्त चर्म से बना आसन ही साधक के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।
यदि चर्मासन उपलब्ध ने हो तो दर्भासन का उपयोग करें आसन के विषय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा एक विशेष मुद्दा भी ध्यान में रखें। साधना करते समय शरीर में उत्पन्न होने वाली अतिरिक्त ऊर्जा और उष्णता का बाहर निकलना भी आवश्यक है। इसके अलावा पृथ्वी की उष्णता एवं ऊर्जा को अपने शरीर में संक्रमित नहीं होने देना चाहिए। दोनों कार्य सफल हों, इस दृष्टि से वैसा आसन उपयोग में लाना चाहिए। आसन के तौर पर लकडी का उपयोग करना फायदेमंद नहीं है। लकडी मंद संक्रामक है। लकडी के आसन पर बैठकर पुरश्चरण करने वाले साधक को ग्लानि आती है- यह अनुभव की बात है। ऊनी आसन पृथ्वी की आंतरिक ऊष्णता एवं ऊर्जा के लिए अहितकर न होकर शरीर की अतिरिक्त ऊर्जा तथा ऊष्णता बाहर निकालने में सहायक होता है। आसन चुनते समय यह ध्यान रहे कि उस पर बैठने से हमारे शरीर की किसी इंद्रिय को कष्ट न हो और जमीन के ठंडे स्पर्श के कारण पैरों में सूजन न आए।