मैरे वास्तु

बृहस्पति आशावाद के प्रतीक हैं, गुरू हैं, ग्रह हैं तथा देवताओं के मुख्य सलाहकार हैं। वे उपदेशक हैं, प्रवाचक हैं तथा सन्मार्ग पर चलने की सलाह देते हैं। वे विज्ञान हैं, दृष्टा हैं तथा उपाय बताते हैं जिनसे मोक्ष मार्ग प्रशस्त हो। यदि गुरू अपने सम्पूर्ण अंश दे दें तो व्यक्ति महाज्ञानी हो जाता है। मैंने बृहस्पति को लेकर जब परीक्षण करने शुरू किये तो ब़डे अजीब पैरामीटर्स मैंने तय किये यथा जब बृहस्पति नीच राशि में हों तब व्यक्ति की चर्बी कम होगी या अधिक होगी। मुझे यह देखकर ब़डा आpर्य हुआ कि जिन स्त्रयों की कुंडलियों में बृहस्पति नीच राशि में हैं उनमें मोटापा अधिक बढ़ता है। जिनमें बृहस्पति अत्यन्त शुभ अंशों में हों उनमें भी सा देखने को मिल सकता है। जो लोग बृहस्पति के लगन में जन्म लेते हैं उनमे भी वसा तत्व अधिक मिलेगा और मोटापे को रोक नहीं पायेंगे। जिन लोगों की धनु या मीन राशि है उनको भी कालान्तर में यह समस्या उत्पन्न होगी। बृहस्पति एक तरफ ज्ञान, विज्ञान व विद्वत्ता देते हैं, दूसरी तरफ इस तरह के कष्ट भी देते हैं। हम सब जानते हैं कि परिश्रम करने से या कसरत करने से मोटापा कम होता है अर्थात् बृहस्पति के अंश अधिक होने से कसरत करनी प़डती है यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
आधुनिक गुरूओं ने कसरत को योगा बना दिया है। कसरत का फैशन उत्पन्न नहीं हुआ बल्कि योगा का फैशन हो गया है। टी.वी. के पर्दे पर भांति-भांति की बालाएं जब योगा प्रस्तुत करती हैं तो लोगों को यकीन हो जाता है कि इसे कर लेना चाहिए। महर्षि पातंजलि के मन पर क्या बीत रही होगी जब वे योगा के इस विचित्र प्रसार को देख रहे होंगे। अब योगा आश्रम से बाहर निकल कर बाजार में आ गया है और दुनिया की सबसे अधिक बिकाऊ वस्तुओं में से एक हो गया है। जितने अधिक रूपये जलेंगे उतनी ही अधिक चर्बी जलेगी। शरीर को कष्ट नहीं हो इसलिए यंत्र भी बिक रहे हैं परन्तु बृहस्पति देवता हैं कि कुछ खास कृपा ही नहीं करते। मैं बहुत ऑर्थोडॉक्स कहलाऊंगा यदि यह प्रस्ताव मैं करूं कि यदि बृहस्पति का पूजा-पाठ करेंगे तो अवश्य ही मोटापा घटाने के लौकिक उपाय सफल हो जायेंगे अन्यथा बार-बार व्यायाम शालाओं में जाना पडे़गा और खर्चे का मीटर भी बढे़गा। मैंने जो बहुत मजेदार परीक्षण किया वह यह कि जन्मचR में बृहस्पति का गोचर प्रयोग करते हुप्त; यह देखा कि बृहस्पति किस भाव पर दृष्टि डाल रहे हैं तथा वह भाव किस दिशा में प़डता है। उदाहरण के लिए बृहस्पति जन्म चR के तीसरे भाव में भ्रमण कर रहे हैं तथा सातवें भाव पर, नवें भाव पर व एकादश भाव पर दृष्टिपात कर रहे हैं तो इनमें से सातवां भाव पत्नी से सम्बन्धित हैं व उसकी भाव की दिशा पश्चिम है। बृहस्पति की अमृत दृष्टि है अत: वह सप्तम भाव पर शुभ प्रभाव ़डालते हुप्त2318; पत्नी के जीवन में शुभ लायेंगे। पत्नी का पद बढे़गा, उसको सुख बढे़गा, उनके जेवर बनेंगे व साथ के साथ उनका स्वास्थ्य भी बढे़गा। इसका अर्थ यह निकला कि उनको भोजन भी अच्छा मिलेगा, दावतों में भी शामिल होंगे व पति का सानिध्य अधिक मिलेगा। जिन लोगों के तलाक की स्थितियां हैं उनके तलाक रूक जायेंगे परन्तु जिनके तलाक सम्बन्धित कार्यवाहियां सप्तम भाव पर बृहस्पति की दृष्टि से पूर्व ही हो चुकी हैं उनके पुनर्विवाह के योग बनेंगे। ठीक इसी समय आप पायेंगे कि मकान के पश्चिम दिशा में या तो निर्माण होंगे या निर्माण कराने जैसी परिस्थितियां नहीं हैं तो पश्चिम दिशा में स्थित शयन कक्षों में इन्टीरियर अर्थात आंतरिक स\"ाा में परिवर्तन आयेगा। इन कक्षों में रहने वालों के जीवन स्तर में परिवर्तन आयेगा। उनके सुख में वृद्धि होगी और उसके परिणामस्वरूप उनके स्वास्थ्य में सुधार होगा। यह परिस्थितियां तब तक रहेंगी जब तक बृहस्पति देवता की दृष्टि सप्तम भाव पर अर्थात पश्चिम दिशा पर है। यही परीक्षण मैंने शनि देवता के गोचर भ्रमण को लेकर भी किया। मान लीजिए शनि लग्न में गोचर कर रहे हैं तो उनके दृष्टि क्षेत्र में तीसरा भाव आ जायेगा। तीसरे भाव के विषय छोटे भाई-बहिन, पराRम व छोटी यात्राएं हैं। तीसरे भाव का दिशाRम ईशानकोण से उत्तर की ओर है। अब यदि तीसरे भाव में शनि की शत्रु राशियाँ हुई तो वे सब कष्ट पायेंगे जो कि तीसरे भाव की विषय वस्तु हैं और यदि तीसरे भाव में शनि देव कीमित्र या उच्चाादि राशियां हैं तो वे सब सुख पायेंगे जो कि तीसरे भाव से संबंध रखते हैं। मैंने &प्त2318;से मामलों में पाया है कि ईशान कोण में या तो नये निर्माण होंगे या निर्माण कार्यो में संशोधन होंगे या ईशान कोण में स्थित कमरों के इन्टीरियर में परिवर्तन आयेगा। अब यदि तीसरे भाव में शत्रु राशियों पर शनि की दृष्टि प़्ाड रही है तो ये सब परिवर्तन बर्बादी का रास्ता दिखाने वाले होंगे तथा यदि शनि देव की दृष्टि शुभ प्रभाव डाल रही है तो ये सब परिवर्तन उन्नति का मार्ग दिखाने वाले होंगे। मैं अपने इस परीक्षण पर एक दिन बहुत ही खुश हुआ जब मैंने एक व्यक्ति के ईशान कोण में स्थित कमरे को तो़डने के लिए कहा तथा जब कमरा तु़डवाने के बाद उसने मुझे अपनी जन्मपत्रिका दिखाई तो उसके तीसरे भाव पर शनि की शत्रु दृष्टि थी तथा उन्होंने लग्न में आते ही कुछ दिनों में अपना काम कर दिया। शनि की शत्रु दृष्टि और वास्तुशास्त्री की वR दृष्टि कई बार एक जैसा ही परिणाम देती है। इशारा होते ही बडे़-बडे़ निर्माण ध्वस्त हो जाते हैं। मैं तो अब डरने लगा हूँ कि करो़डों रूपयौं के निर्माण गिरा देने वाले वास्तुशास्त्री यदि दैवीकृपा के बिना निर्णय करने लगें तथा केवल बुद्धि विलास में या प्रतिस्पर्द्धा में या अपनी ज्यादा चलाने के चक्कर में लोगों के करो़डों रूपये ध्वस्त करने लगें तो उनका पाप का ƒ़ाडा तो बहुत पहले ही भर जायेगा। उनका पतन इसी जीवन में देखने को मिलेगा। अत: जब तक वास्तु देवता को सिद्ध नहीं कर लें, &प्त2318;से निर्णय नहीं करने चाहियें। &प्त2318;सा भी होता है कि एक ही भाव पर बृहस्पति की दृष्टि आ रही हो और शनि की दृष्टि आ रही हो। &प्त2318;से में उस भाव से सम्बन्धित दो-तीन तरह के परिणाम आ सकते हैं:- 1. यदि प्रश्नगत भाव में प़डने वाली राशि बृहस्पति और शनि दोनों के ही अनुकूल हों तो अत्यधिक शानदार परिणाम मिलेंगे। 2. यदि प्रश्नगत राशि बृहस्पति के तो अनुकूल हों परन्तु शनि के प्रतिकूल हों तो पहले नुकसान होगा और फिर पुनर्निर्माण होगा। 3. स्वास्थ्य के मामले में यह हो सकता है कि प्रश्नगत भाव से संबंधित व्यक्ति के शल्य चिकित्सा हो और बृहस्पति के प्रभाव में जल्दी ठीक हो जायें या जीवन रक्षा हो जाये। 4. शनि और बृहस्पति का संयुक्त प्रभाव खण्डन व मण्डन की प्रçRया है और दोनों प्रçRयाएं सम्पादित होंगी। यह बात अलग है कि गोचरीय प्रभाव से पहले वह कार्यवाही होगी जिस ग्रह का गोचर पहले शुरू हो चुका हो। 5. जहां तक वास्तु शास्त्र का संबंध है तो यह हमेशा अच्छा रहता है कि पहले किसी भाव पर शनि की दृष्टि प्रारंभ हो जाये तो तो़डने-फो़डने जैसी प्रçRया पहले संपादित हो जाये और बाद में बृहस्पति का गोचर शुरू होते ही पुनर्निर्माण की प्रçRया शुरू हो जाये जिसे हम शब्दान्तर से संश्लेषण भी कह सकते हैं। तर्कशास्त्र में इन प्रçRयाओं को थीसिस, एन्टीथीसिस और सिन्थेसिस कहते हैं। जिन वास्तु शाçस्त्रयों का बृहस्पति बलवान नहीं होता वे सिन्थेसिस की प्रçRया को अपने सम्पूर्ण स्वरूप में प्रतिपादित नहीं कर पाते फलस्वरूप उनके कराये गये कार्यो के परिणाम भी पूर्णता या सफलता को प्राप्त नहीं होते। यह बिना बृहस्पति की कृपा के संभव ही नहीं है। 6. यही बात ज्योतिष की भविष्यवाणियों के संदर्भ में कही जा सकती है। यदि बृहस्पति बलवान हुए तो वे ज्योतिषी उपाय ज्योतिष में अत्यधिक सफल रहेंगे और यदि उनके बृहस्पति बलवान नहीं हु&प्त2318; तो वे या तो सटीक उपाय बता पाने में समर्थ नहीं होंगे या उनके बताये हु&प्त2318; उपायों से सटीक परिणाम नहीं आयेंगे। यदि उनके बृहस्पति पर पाप प्रभाव हुए तथा चंद्रमा दूषित हुए तो &प्त2318;से-&प्त2318;से उपाय बतायेंगे जिनमें धनार्जन तो होगा परन्तु जातक को परिणाम कम मिलेंगे और उसके मन में असंतोष रहेगा। 7. यदि यह सब ग्रह राहु के प्रभाव क्षेत्र में हैं तो दृष्टि भ्रम रहेगा और उपाय बताने वाले या करने वालों को सच्चााई का पता नहीं चलेगा और बहुत बाद में एक अन्य कार्यवाही या संशोधन की आवश्यकता पडे़गी और यह तब होगा जब प्रश्नगत भाव पर राहु का प्रभाव समाप्त हो जाए या राहु की अन्तर्दशा निकल जाए। मैंने गोचर को लेकर करीब दस से बारह हजार परीक्षण किये तथा बाद में मैं इन सब अनुभवों को कक्षाओं में पढ़ाने लगा। मेरे विद्यार्थियों ने भी अपने अनुभव मुझे बताए। अब तक मैं ऩाडी ग्रंथों या भृगु ज्योतिष के गं्रथों में यह पाता था कि जैसे राहु, शनि और बृहस्पति के गोचर से ही अधिकांश भविष्यवाणियां की जा रही हैं परंतु उन ग्रंथों में वास्तु संबंधी उल्लेख कम मिलते हैं। हम कोशिश कर रहे हैं कि हमारे &प्त2318;से अनुभवों का संकलन एक ही स्थान पर कर दें जिससे असंख्य जनता को लाभ हो। बृहस्पति नीच राशि में होने पर यदि अशुभ हो जाएं अर्थात् नवांश या दशांश में भी नीच राशि या शत्रु राशि में हों तो जातक में दृष्टि दोष मिलेगा व उनकी सलाह में पवित्रता के अंश कम हो जायेंगे। मुझे एक बार मेरे गुरू ने कहा था कि यदि चन्द्रमा और राहु अष्टम में आ जाएं तो जातक तंत्र से धन यापन के चक्कर में प़ड जाता है। इस योग का परीक्षण तो मैं ज्यादा नहीं कर पाया परन्तु यदि बृहस्पति पाप अंशों में चले जाएं या उन पर पाप प्रभाव बढे़ं तो मैंने यह देखा है कि लोग ज्योतिष से भी धन &प्त2318;ंठने में नये-नये तरीके निकाल लेते हैं। &प्त2318;ंठने से तात्पर्य यह है कि जातक को बीच किसी हवन में यह पता चलता है कि इतना पैसा और देना है तथा यजमान संकट में आ जाता है। या कोई मृत्यु भय जैसा उत्पन्न करके पैसा मंागा जाता है। ज्योतिषी के लिए सदा ही उचित है कि वे जातक को पहले ही बता दें कि उनके द्वारा किये गये कार्य में कितना खर्चा आयेगा। बदलते हुए समय में जब लोग दक्षिणा का मूल्यांकन करने में समर्थ नहीं रहे हैं तो यही उचित है कि खर्च का अनुमान पहले ही दे दिया जाए। इसी संदर्भ में मैं गुरू चाण्डाल योग की भी चर्चा कर लेना चाहता हूँ। बृहस्पति और राहु जब साथ होते हैं तो गुरू चाण्डाल योग बनता है। चाण्डाल का अर्थ निम्नतर जाति है। चाण्डाल का कार्य श्मशान भूमि के आसपास ही सीमित रखा गया था। कहा गया कि चाण्डाल की छाया भी ब्राrाण को या गुरू को अशुद्ध कर देती है। मैंने शनि और राहु की प्रतिनिधि जनता के बारे में जब सर्वेक्षण करना शुरू किया तो निमA जातियों या मजदूर या श्रमिक वर्ग या कई मामलों में कृषक वर्ग से शनि का सम्बन्ध जो़डा जा सकता है परन्तु राहु का सम्बन्ध अन्त्यज जातियों से है। यदि पुराना इतिहास पढे़ं तो यह वे जातियां मिलेंगी जो कि गाँव में प्रवेश से पूर्व ढोल बजाती थीं। सम्भवत: समाज के पतन की यह पराकाष्ठा थी और इन जातियों के गौरव में भी वृद्धि हुई है और उच्चा जातियों की मानसिकता में भी परिवर्तन आया है। समाज की जटिलता अब थो़डी कम हुई है पर इस बात को ज्योतिष के आईने में दूसरे ढंग से देखा जा सकता है। राहु और बृहस्पति का सम्बन्ध होने से शिष्य का गुरू के प्रति द्रोह देखने में आता है। यदि राहु बलशाली हुए तो शिष्य, गुरू के कार्य को अपना बना कर प्रस्तुत करते हैं या गुरू के ही सिद्धांतों का ही खण्डन करते हैं। बहुत से मामलों में शिष्यों की उपस्थिति में ही गुरू का अपमान होता है और शिष्य चुप रहते हैं। यहां शिष्य ही सब कुछ हो जाना चाहते हैं और कालान्तर में गुरू का नाम भी नहीं लेना चाहते। यदि राहु बहुत शक्तिशाली नहीं हुए परन्तु गुरू से युति है तो इससे कुछ हीन स्थिति नजर में आती है। इसमें अधीनस्थ अपने अधिकारी का मान नहीं करते। गुरू-शिष्य में विवाद मिलते हैं। शोध सामग्री की चोरी या उसके प्रयोग के उदाहरण मिलते हैं, धोखा-फरेब यहां खूब देखने को मिलेगा परन्तु राहु और गुरू युति में यदि गुरू बलवान हुए तो गुरू अत्यधिक समर्थ सिद्ध होते हैं और शिष्यों को मार्गदर्शन देकर उनसे बहुत बडे़ कार्य या शोध करवाने में समर्थ हो जाते हैं। शिष्य भी यदि कोई &प्त2318;सा अनुसंधान करते हैं जिनके अन्तर्गत गुरू के द्वारा दिये गये सिद्धान्तों में ही शोधन सम्भव हो जाए तो वे गुरू की आज्ञा लेते हैं या गुरू के आशीर्वाद से &प्त2318;सा करते हैं। यह सर्वश्रेष्ठ स्थिति है और मेरा मानना है कि &प्त2318;सी स्थिति में उसे गुरू चाण्डाल योग नहीं कहा जाना चाहिए बल्कि किसी अन्य योग का नाम दिया जा सकता है परन्तु उस सीमा रेखा को पहचानना बहुत कठिन कार्य है जब गुरू चाण्डाल योग में राहु का प्रभाव कम हो जाता है और गुरू का प्रभाव बढ़ने लगता है। राहु अत्यन्त शक्तिशाली हैं और इनका नैसर्गिक बल सर्वाधिक है तथा बहुत कम प्रतिशत में गुरू का प्रभाव राहु के प्रभाव को कम कर पाता है। इस योग का सर्वाधिक असर उन मामलों मेें देखा जा सकता है जब दो अन्य भावों में बैठे हुए राहु और गुरू एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। गुरू चाण्डाल योग का एकदम उल्टा तब देखने को मिलता है जब गुरू और राहु एक दूसरे से सप्तम भाव में हो और गुरू के साथ केतु स्थित हों। बृहस्पति के प्रभावों को पराकाष्ठा तक पहुँचाने में केतु सर्वश्रेष्ठ हैं। केतु त्याग चाहते हैं, कदाचित बाद में वृत्तियों का त्याग भी देखने को मिलता है। केतु भोग-विलासिता से दूर बुद्धि विलास या मानसिक विलासिता के पक्षधर हैं और गुरू को, गुरू से युति के कारण अपने जीवन में श्रेष्ठ गुरू या श्रेष्ठ शिष्य पाने के अधिकार दिलाते हैं। इनको जीवन में श्रेय भी मिलता है और गुरू या शिष्य उनको आगे बढ़ाने के लिए अपना योगदान देते हैं। इस योग का नामकरण कोई बहुत अच्छे ढंग से नहीं हुआ है परन्तु गुरू चाण्डाल &प्&

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