ज्योतिष से पाएं रोग का निदान
Others I Posted on 11-07-2013 ,00:00:00 I by:

मनुष्य जीवन वैसे तो कष्टों का ही पिटारा है, मगर शरीर ही रोगी हो जाए, तो उससे बडा कष्ट कोई नहीं हो सकता। अर्थात जीवन का रोग महाकष्ट है। इससे निजात पाने के लिए चिकित्सा तो महत्वपूर्ण है ही, मगर ज्योतिष भी इसके निदान में महत्वपूर्ण साधन है। इसकी सहायता से ज्योतिषी केवल रोग के मूल कारण को ही नहीं पकडता अपितु इसकी प्रकृति, रोग स्थान का पूर्व में ही पता लगा लेता है, क्योंकि हर व्यक्ति का जीवन प्रकृति के विभिन्न कारकों और तत्वों से प्रभावित रहता है, और उनमें उसके जन्म के साथ जुडे ग्रह-नक्षत्र महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। हम यहां बता रहे हैं कि आपके जन्म के समय के लग्न की आपके जीवन में कितनी महत्ता है- जब हम किसी जन्मपत्रिका का निरूपण करते हैं तो कुछ कमियों को अनदेखा कर देते हैं। इनमें कुछ निम्न हैं :
1. क्रांति साम्य या महापात के समय जन्म होना।
2. संक्रांति के समय जन्म होना।
3. कार्तिक माह में जन्म होना।
4. गंडान्त समय जन्म होना।
5. कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी या अमावस्या को जन्म होना। उपर्युक्त बिन्दुओं पर यहाँ कुछ और चर्चा करना प्रासंगिक रहेगा।
1. क्रांति साम्य या महापात का समय सूर्य और चंद्रमा की क्रांति के निरूपण को दर्शाता है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है: सूर्य और चंद्रमा की निरयण रेखाओं को सायन रेखांश में बदलते हैं। ऎसा निरयण रेखाओं में अयनांश जो़डकर किया जाता है। जब सूर्य और चंद्रमा के सायनों का योग 1800 या 3600 के बराबर होता है तो यह महापात का केन्द्र बिन्दु होता है। इस महापात के ठीक मध्य बिन्दु पर जन्म होना अत्यंत अशुभ माना जाता है और ऎसा व्यक्ति जीवन में बहुत कष्ट झेलता है।
2. सूर्य का किसी राशि में प्रवेश करना संक्रांति कहलाता है। ठीक संक्रांति काल के आगे-पीछे लगभग साढ़े छ: घंटे का समय बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इस समयान्तराल में जन्मे व्यक्ति को स्वास्थ्य समस्याएँ और दुर्भाग्य का सामना करना प़डता है। दूसरे शब्दों में एक राशि में सूर्य 290 - 45" से दूसरी राशि के 100-15" तक अनुकूल नहीं होता। यदि सूर्य इस दूषित क्षेत्र में होते हैं तो वह लग्न या उस भाव के विशेष क्षेत्र को कुप्रभावित करते हैं।
3. तुला राशि के 100 (परमनीच) के इर्द-गिर्द सूर्य का होना भी कुण्डली के राजयोगों को नष्ट कर देता है। इसे कार्तिक जन्म भी कहते हैं।
4. कर्क, वृश्चिक और मीन राशि के अंतिम अंश और मेष, सिंह और धनु के प्रथमांश पर चंद्रमा के स्थित होने को गंडांत कहा जाता है। ऎसे योग में जन्मा व्यक्ति स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रसित रहता है और उसे व्यावसायिक असफलताओं से जूझना प़डता है।
5. कृष्ण पक्ष की अमावस्या या चतुर्दशी में जन्म होना अशुभ माना जाता है, जिसका अमावस्या को जन्म होता है उसे ज्योतिष शास्त्र में अभागा, रोगी और उतार-चढ़ावों के जीवन वाला माना जाता है। चतुर्दशी रिक्ता तिथि है तथा कृष्ण पक्ष की और भी अशुभ होती है।
6. एक अन्य अशुभ परिणाम देने का योग है जब सूर्य और चंद्रमा वृश्चिक राशि में, अनुराधा नक्षत्र के अंतिम दो चरणों में स्थित हों। वृश्चिक राशि में चंद्रमा नीच के होते हैं। चंद्रमा की ज्योतिष में यह स्थिति "सर्पशीर्ष" कहलाती है। ऎसे मुहूत्त में जन्म लेने वाला व्यक्ति असाध्य रोग से ग्रस्त हो जाता है और अल्पायु ही भोग पाता है।
7. लग्न में स्थित गुलिक, विशेषत: तब जब गुलिक और लग्न के अंश एक समान या आसपास हों तो ऎसे योग में जन्मा व्यक्ति सुस्त, आलसी, रोगी और कू्रर स्वभाव का होता है तथा उसके जीवन में अप्रत्याशित समस्याएँ आती रहती हैं परंतु यदि गुलिक स्थित राशि का स्वामी अपनी उच्चा राशि, स्वराशि या केन्द्र-त्रिकोण में स्थित हो तो अशुभ फलों में कमी आ जाती है। ग्रहण के समय जन्म होना भी भारी प्रतिकूल एवं अशुभ माना जाता है। यहाँ तक कि ग्रहण के दिन जन्म लेना भी शुभ नहीं होता। इन सभी बिंदुओं पर किसी जन्मपत्रिका में तत्काल विचार कर लेना चाहिए तथा इन पर सावधान रहना चाहिए। महर्षि पाराशर ने अपने ग्रंथ पाराशर होरा शास्त्र में देह-सुख के योगों का वर्णन किया है जिनमें से कुछ निम्न हैं:
1. यदि लग्नेश अशुभ ग्रह के साथ स्थित होकर 6, 8, 12 भाव में स्थित हो तो शारीरक सुखों में कमी हो जाती है।
2. यदि लग्नेश अस्त, नीच अथवा शत्रु राशि में स्थित हो तो ऎसा व्यक्ति बार-बार बीमार होता रहता है परंतु यदि शुभ ग्रह केन्द्र-त्रिकोण में स्थित हों तो उपर्युक्त योग के होने के उपरांत भी शरीर सुख (देह सुख) मिलते हैं।
3. यदि लग्नेश या चंद्रमा अशुभ प्रभाव में हों या उन पर अशुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो भी देह सुखों में कमी आ जाती है। इन सभी बिन्दुओं पर विचार कर लेना चाहिए। इनके निर्वचन के आधार पर एक सामान्य निष्कर्ष निकाल लेना चाहिए कि किसी व्यक्ति की कुण्डली में स्वस्थ रहने के योग हैं या व्यक्ति सामान्यत: बीमार ही रहेगा। कुछ ऎसे योग हैं जो उत्तम स्वास्थ्य और बीमारियों के विरूद्ध ल़डने की क्षमता देते हैं जैसे बली लग्नेश, राजयोगी लग्न अर्थात् वर्गोत्तम लग्न और शुभ मध्य में होना आदि। लग्न में पर्याप्त बिंदुओं का होना तथा अष्टम भाव में भी पर्याप्त बिंदुओं का होना। बली सूर्य और बली चंद्र का होना भी आवश्यक होता है। किसी ज्योतिषी को यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि वह रोग विशेष की औषधि का ज्ञान रखें अपितु एक निपुण चिकित्सक की भाँति वह रोग के बारे में सटीक भविष्यवाणी अवश्य कर सके। सभी प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों में "कालपुरूष के अंगों की विवेचना मिलती है, यही अंग प्राकृतिक भचक्र के भी अंग होते हैं। शरीर के अंगों में जो सर्वाधिक कुप्रभावित हो जाता है, उसमें रोग की उत्पत्ति हो जाती है। इसी प्रकार लग्न से आरंभ होने वाले भाव भी शरीर के विभिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। बीमारी की प्रकृति वही होगी,जो प्रकृति उस राशि की होती है, जिस पर अशुभ प्रभाव होता है तथा किस प्रकृति का ग्रह उस पर अपना अशुभ प्रभाव डाल रहा होता है। इस संबंध में विस्तृत वर्णन ज्योतिष ग्रंथों में मिलता है।
रोग के विश्लेषण में आवश्यक विचारणीय बिंदु:
1. सर्वप्रथम यह देखना होगा कि लग्न और लग्नेश की क्या स्थिति हैक् इनके बलवान या निर्बल होने के संबंध में विभिन्न बिंदुओं के आधार पर निर्णय लेना चाहिए।
2. कारक ग्रह और उनकी राशि : विभिन्न ग्रह अपनी मूल प्रकृति के अनुसार व्यक्ति को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करते हैं। जो लोग खाँसी-जुकाम से पीडत होते हैं, उन्हें सूर्य ने प्रभावित नहीं किया होता है। शनि शीतल और शुष्क ग्रह हं तथा वात प्रकृति के हैं, अत: उनके कारण गर्मी संबंधी रोग नहीं पनप सकते। इसलिए हमें यह जानना होगा कि किसी रोग विशेष के कारक ग्रह कौन से हैं?
3. कारक भाव और उसके स्वामी: किसी कुण्डली का प्रत्येक भाव और प्राकृतिक भचक्र का विशिष्ट अंग होता है। जैसे फेफ़डों और ह्वदय से संबंधित रोग के लिए हमें चतुर्थ भाव और कर्क राशि पर विचार करना होगा।
4. चिकित्सा ज्योतिष के लिए छठे भाव और इसके स्वामी पर विस्तार से विचार करना चाहिए।
रोग का समय निर्धारण:
प्राय: 6, 8, 12 भावों के स्वामियों की दशाओं का संयोजन और मूलरूप से लग्नेश की अंतर्दशा में रोग की उत्पत्ति होती है।
मेष लग्न में मंगल की दशा में बुध की अंतर्दशा के अंतर्गत बीमारियां आती हैं। यद्यपि मंगल लग्नेश होते हैं और मंगल की मूल त्रिकोण राशि लग्न में ही होती है तथापि ये अष्टम भाव के स्वामी भी होते हैं तथा बुध छठे भाव के स्वामी हैं।
वृषभ लग्न में छठे भाव में शुक्र की मूल त्रिकोण राशि तुला स्थित होती है। शुक्र महादशा में बृहस्पति की अंतर्दशा अथवा बृहस्पति दशान्तर्गत शुक्र अंतर्दशा में कोई भारी रोग उत्पन्न होता है। बृहस्पति नैसर्गिक रूप से इस लग्न के लिए अशुभ एवं अनिष्टकारी होते हैं। इस लग्न में बृहस्पति एकादशेश होते हैं, जो छठे से छठा भाव होता है। इसी प्रकार सभी लग्नों में 6, 8, 12 भावों के स्वामियों की दशाओं या अंतर्दशाओं के साथ-साथ लग्नेश की अंतर्दशा में रोग प्रकट होते हैं। 6, 8, 12 भावों में स्थित ग्रह भी उनकी महादशाओं या अंतर्दशाओं में बीमारियों को जन्म देते हैं। मृत्यु संबंधी मामलों में मारक ग्रहों की दशाओं में रोगों की प्रचंडता बढ़ जाती है। मारक भावों (2-7) और 8, 12 भावों में स्थित ग्रह अपनी दशा या अंतर्दशा में रोग कारक हो जाता है। कर्म नियंत्रक ग्रहों का प्रभाव: राहु और शनि दो प्रबल कार्मिक ग्रह हैं। अपनी दशा-अंतर्दशाओं में ये पूर्व जन्मकृत कर्मो से संबंधित समस्याओं को जन्म देते हैं। इनके कारक ग्रह कई प्रकार के रोग और समस्याओं का कारण बन जाते हैं।