बृहस्पति को गुरू क्यों कहते हैं !

खगोल शास्त्र और ज्योतिष में सौरमंडल के नौ ग्रहों में सूर्य सहित शुक्र और बृहस्पति आते हैं। सप्ताह के सात दिनों का नामकरण में भी इन तीनों से तीन दिनों का नाम जु़डा हुआ है। परस्पर तीनों की तुलना में सूर्य सर्वाधिक प्रकाशवान हैं, सबसे बडे़ और सबसे भारी हैं। बृहस्पति ग्रह का एक पर्यायवाची शब्द जो प्रचलन में व्यापक देखने को मिलता है वह गुरू शब्द है। गुरू शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिनमें आधार भूत अर्थ जो अधंकार को मिटाये, भारी, ब़डा इत्यादि हैं।
पौराणिक साहित्य में देवताओं के गुरू बृहस्पति हैं और असुरों के गुरू शुक्र शुक्राचार्य हैं। अत: इन तीनों यथा सूर्य, बृहस्पति और शुक्र में गुरू का संबोधन सूर्य को न दिया जाकर बृहस्पति को क्यों दिया गया है? यह एक सहज जिज्ञासा है। बृहस्पति को गुरू नामकरण दिया जाना निरर्थक नहीं हो सकता है अपितु उसमें कोई सार्थकता अवश्य है वह सार्थकता क्या हो सकती है और वह कितनी हितकारी हो सकती है यह जानने के लिए गुरू शब्द की पवित्रता और महानता की पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक प्रतीत होता है।
गुरू शब्द का प्रयोग भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक स्तर पर किया जाता है। भौतिक और दैविक स्तर अपरा जगत के अंतर्गत हैं और आध्यात्म को परास्तर पर व्यक्त किया जाता है। इन्हीं को पांच कोष अथवा सात लोकों के रूप में भी व्यक्त किया गया है यथा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोश हैं तथा भू, भुव:, स्व: जन, मह, तप और सत्य लोक हैं। इनमें मनोमय को चन्द्रलोक तथा विज्ञानमय को सूर्य लोक भी कहा गया है। आनंदमय कोश का स्थान सत्यलोक माना गया है। भारतीय परम्परा में विश्व शांति हेतु भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक शांति हेतु एकरूपता बनाए रखते हुए। ईश्वर से प्रार्थना की जाती है यथा ú शान्ति: शान्ति: शान्ति:।
आध्यात्म का स्तर सूर्य और चन्द्रमा के लोकों से भी कहीं आगे तक जाता है। अत: गुरू संबोधन सूर्य अथवा चंद्रमा को नहीं दिया गया। दैविक स्तर पर सतयुग की गाथाएं देव और असुरों के मध्य परस्पर संघषो का वर्णन करती हैं। संघष से अशांति ही उत्पन्न होती हैं अत: अधिदैविक स्तर पर शांति हेतु मार्गदर्शन कौन करें- देवगुरू बृहस्पति या असुर गुरू शुक्राचार्यक् गुरूपद की मर्यादा की पवित्रता के अनुरूप यद्यपि देव और असुर परस्पर शत्रु थे किन्तु उनके गुरू बृहस्पति और शुक्र के संबंध आत्मीय थे।
भौतिक जगत में जहाँ संपूर्ण संसार धन-संपत्ति और सांसारिक सुखों की कामना करता है वहाँ जगद्गुरू शंकराचार्य ने गुरू प्रशस्ति पर संस्कृत भाषा में दो अष्टक लिखे हैं। एक अष्टक में गुरू तत्व का विवेचन करते हुये श्री सत्यदेव को समर्पित किया है जिनका निरंतर स्मरण बना रहना चाहिए। दूसरे अष्टक में श्री गुरू के चरण कमल की तुलना में संपूर्ण संसार की निस्सारता को व्यक्त किया है। आध्यात्म के जिज्ञासुओं के लिये ये अमूल्य योगदान है।
वीरेन्द्र नाथ भार्गव

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