सम्पन्‍नता ही नहीं विपन्नता भी सुख देती है

स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज का कहना है कि सुखी जीवन के लिए बेतहाशा धन-दौलत की जरूरत नहीं है, अभावों में रहकर भी सुख का वरण किया जा सकता है।

आज चारों ओर अशांति की ज्वाला जल रही है। प्रत्येक व्यक्ति निरंतर अभाव का अनुभव कर रहा है। सबकुछ होते हुए भी एक अजीब किस्म का अभाव। कोई भी पूरी तरह संतुष्ट नजर नहीं आता। मुझे अनेक संतों, महात्माओं, अध्यापकों, वैज्ञानिकों और विचारकों से विचार-विमर्श करने का अवसर मिला है। वनवासियों, आदिवासियों, संपन्न और विपन्न व्यक्तियों से भी वार्तालाप करने का समय मिला है। सबसे बात करने पर मैंने पाया और महसूस किया कि संपन्न लोगों की अपेक्षा विपन्न लोग ज्यादा सुखी जीवन जीते हैं। संपन्नता में जीवन जीने वाला व्यक्ति अधिक दुखी है। वह परिस्थितियों का रोना भी अधिक रोता है। विपन्न शिकायत कम करता है, वह अपने कार्य में मग्न रहता है। अपना जीवन, उस अव्यक्त शक्ति के प्रति आस्थावान होकर बिताता है।
मजदूर की मीठी नींद आगे सबकुछ छोटा
मैंने देखा कि सम्पन्न लोगों की तुलना में विपन्न व्यक्ति ज्यादा सुखी और विनम्र नजर आया। इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। एक बार मैं किसी संपन्न व्यक्ति के साथ किसी कार्यक्रम में जा रहा था। मार्ग में एक व्यक्ति लेटा हुआ था। कार के चालक ने तेज हॉर्न बजाया, परंतु उस व्यक्ति की नींद नहीं टूटी। पास पहुंच कर उसने कार रोकी। फिर उतरकर उसे जगाया। संपन्न व्यक्ति ने कहा,स्वामीजी, मुझे इससे ईष्र्या हो रही है। मैंने पूछा,इस बेचारे मजदूर से ईष्र्या का क्या कारण हो सकता है? धनी व्यक्ति ने कहा,स्वामीजी, आपके आशीर्वाद से घर में सब प्रकार की सुविधा है। सोने के लिए पलंग पर मखमली गद्दा है। नींद की गोली लेता हूं। फिर भी निगोड़ी नींद नहीं आती और इसे देखिए, इस कोलाहल भरे रास्ते में, कंकड़-पत्थरों के बीच जमीन पर इतनी गहरी नींद में सो रहा है। आप ही बताएं कि शांति भरी निद्रा के लिए सम्पन्नता और पैसा क्या काम आया?
खुश रहने के लिए सम्‍पन्‍न्‍ता जरूरी नहीं
संपन्नता के होने पर भी भोजन और सोना, इन दोनों से मनुष्य विवश हो जाता है। वैभव में सुख है, इससे यह भ्रम टूट जाता है। दुनिया के विभिन्न देशों में श्री कृष्ण चेतना के अनुयायियों को देखिए, साधु वेश धारण करके अपने धन-वैभव को छोड़कर, नाम संकीर्तन में सुख के उपाय खोजने का प्रयास करते हैं। ये भक्त मस्त होकर कीर्तन करते हुए अपनी चेतना को उस विराट चेतना से, भक्ति के माध्यम से जोडऩे का प्रयास करते हैं। अभाव में जीने वाले को कठिनाई अवश्य होती है, परंतु जिसे अभाव नहीं है, वह सुखी रहता है, ऐसा भी नहीं है। किसी को संपन्नता मिल गई, तो घर में कोई बालक नहीं है। यदि बालक है, तो कुसंस्कारी है, उसकी चिंता रहती है। विचार आता है कि ऐसी संतान न होती, तो ठीक था। कोई अस्वस्थ रहता है, जिससे प्राप्त चीजों का उपभोग ही नहीं कर पाता। इसी प्रकार इस संसार में हर किसी को कोई न कोई चिंता लगी ही रहती है। सबको अनुकूलता कहां मिल पाती है।

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